गुरू तेग बहादुर जी सिखों के 9 वें गुरु थे। उनके द्वारा रचना की हुई बाणी गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज है। गुरु जी को ” हिन्द की चादर ” भी कहते हैं क्यों की उन्होंने हिंदुस्तान में हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान दे दिया था। इस ब्लॉग में हम उनके बारे में जानने की प्रयास करेंगे।
गुरु तेग बहादुर जी का जन्म और बचपन
- गुरु तेग बहादुर जी का जन्म रविवार, 1 अप्रैल, 1621 को, गुरु-के- महल (अमृतसर) में पिता गुरु हरगोबिंद और माता नानकी के घर हुआ ।
- वह बचपन से ही बहुत शांत स्वभाव के थे ।
- उनका हृदय बहुत दयालु और कोमल था।
- उनका स्वभाव बहुत ही विनम्र और आचरण बहुत सरल था।
- गुरु हरगोबिंद साहिब जी गुरु तेग बहादर से काफ़ी प्रेम करते थे।
- लोग हमेशा कहा करते थे, “वह (तेग बहादुर) जन्म से ही दिव्य पहचान के साथ आए हैं।”
शिक्षा और अन्य प्रशिक्षण
- गुरु हरगोबिंद जानते थे कि तेग बहादुर बहुत ही बहादुर और परोपकारी होंगे, इसलिए उन्होंने उनके लिए हर तरह के आवश्यक प्रशिक्षण पर जोर दिया।
- उन्हें साक्षरता ( भिन्न शिक्षा ) के लिए भाई गुरदास जी को सौंप दिया गया था ।
- इसके बाद उन्हें श्रम और अन्य सद्गुणों के महत्व को सिखने के लिया बाबा बुढा जी के पास भेजा गया ।
- भाई जेठा जी को शास्त्र विद्या सिखाने का काम सौंपा गया था।
- इसके अलावा तेग बहादुर जी ने भी बड़ी ही गहराई से गुरुबानी का अध्ययन किया।
- घुड़सवारी भी अच्छी थी पिता गुरु हरगोबिंद साहिब जी आपकी शास्त्री शिक्षा को देखकर बहुत खुश थे।
- गुरु हरगोबिंद जी अपने बालक के लिए कहा करते थे कि एक दिन हमारा बेटा निश्चित रूप से तेग चलाने में अमीर होगा और जब वह बड़े हुए तो उन्होंने ऐसा ही किया, भक्ति और शक्ति दोनों उसके पास रही।
गुरु हरगोबिंद द्वारा युद्ध की तैयारी
गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने मुग़लों का सामना करने के लिए अकाल तख़्त से सिख संगतों को एक आदेश जारी किया था कि, भेंटां में सभी सिख शस्त्र और घोड़े ही भेंट करें । गुरुजी ने स्वयं भी दो तलवारें पहनी थीं –मीरी और पीरी की (भक्ति और शक्ति की )| गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने चार भारी युद्ध लड़े।
- पहली लड़ाई 15 मई 1628 को अमृतसर में हुई थी, जिसमें गुरूजी ने 7,000 मुस्लिम सेना को हराया था। गुरु तेग बहादुर उस समय 7 वर्ष के थे।
- द्वितीय युद्ध में, गुरु हरगोबिंद जी ने 15,000 की मुगल सेना को हराया। इस युद्ध को गुरु तेग बहादुर जी ने भी देखा था।
- तीसरी लड़ाई मालवा के नथावा में हुई। गुरु साहिब जी इस लड़ाई में भी सफल रहे और इसमें 35,000 मुस्लिम सैनिकों को भगा दिया था।
- चौथी लड़ाई करतारपुर साहिब में हुई, जिसमें नवाब पैंदे खां एक लाख की सेना के साथ आया था। इस युद्ध में गुरु तेग बहादुर 13 साल के थे, लेकिन उन्होंने अपने पिता के साथ अपनी तलवार लहराई और मुगलों के खिलाफ एक भयंकर लड़ाई लड़ी।
इन युद्धों के बाद, गुरु हरगोबिंद अपने परिवार के साथ कीरतपुर साहिब आ गए थे।
गुरु तेग बहादुर जी का विवाह
- गुरु तेग बहादुर जी की सगाई लाल चंद और माता बिशन कौर की बेटी गुजरी के साथ कीरतपुर साहिब में हुई थी और उनका विवाह मार्च 1622 में करतारपुर साहिब में हुआ था ।
- माता गुजरी जी के जीवन के बारे में कहा जाता है, कि वह सिख इतिहास की सबसे महान महिला हैं ,जो खुद शहीद ,जिनके पति , पुत्र गुरु गोबिंद सिंह , जिनके चार पोते बाबा अजीत सिंह, बाबा जुझार सिंह , बाबा जोरावर सिंह, बाबा फतेह सिंह शहीद और जिनके भाई कृपाल चंद भी शहीद हैं ।
- इसलिए वह सिख इतिहास की सबसे महान महिला हैं।
गुरु हरगोबिंद साहिब जी की मृत्यु
- अपने अंतिम दिनों में, गुरु हरगोबिंद जी ने गुरु तेग बहादुर जी के बड़े भाई गुरदित्ता जी के पुत्र श्री हरराय जी को गुरुगद्दी की जिम्मेदारी सौंपीं ।
- माता नानकी जी ने 6वें पातशाह से अपने पुत्र (गुरु तेग बहादुर जी) के बारे में पूछा था और उन्होंने कहा, “चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है” उन्हें भी उनका हक समय आने पर मिल जाएगा।
- 3 मार्च, 1644 ई. को गुरु हरगोबिंद साहिब जी ज्योति जोत समा गए ।
बकाले में गुरु तेग बहादुर जी का निवास
- गुरु हरगोबिंद जी के निधन के बाद, गुरु तेग बहादुर जी अपनी माँ नानकी और पत्नी माता गुजरी को साथ लेकर अपने ननिहाल बकाले आ गए।
- उन्होंने यहां एक कच्ची इमारत में एकांत में भक्ति करना शुरू कर दी ।
- उनका मन सदैव ही लोगों के कल्याण और धर्म की रक्षा के कार्य पर रहता था, वह यह भी सोचा करते थे कि, देश की नियति को कैसे बदला जा सकता है।
- उन्होंने 26 साल, 9 महीने और 13 दिनों के लिए भोरा साहिब में तपस्या की।
बकाला में बाईस गद्दिया (22 पाखंडी गुरु)
गुरु तेग बहादुर जी के बड़े भाई गुरदित्ता जी के पुत्र श्री हरराय जी और उनके बाद गुरु श्री हरराय जी के पुत्र श्री हरकृष्ण जी को गुरुगद्दी मिली । सभी गुरुओं ने अपने -अपने तरिके से मुगलों को समझाने की कोशिश की थी, परन्तु मुगलों ने इनकी बातों को नज़रअंदाज़ कर दिया था । गुरु हरकृष्ण जी को पता था कि केवल गुरु तेग बहादुर जी का बलिदान ही मुगलों के अत्याचारों को रोक सकता है। उनके बलिदान के बाद ही उत्पीड़ित/सोई हुई जनता उठ/जाग खड़ी होगी। इसलिए जब वह सचखंड में जाने लगे, तब उन्होंने अगले गुरुगद्दी के उत्तराधिकारी के लिए वचन कहे –
बाबा बसही ग्राम बकाले।
बानी गुर, संगत सकल समाले।
जिसका मतलब था की अगले उत्तराधिकारी आपको बकाले में मिलेंगे जो वहां तपस्या कर रहें हैं ,इतना वचन कहकर गुरु हरकृष्ण जी 30 मार्च, 1664 ई. को जोति जोत समा गए । गुरु हरकृष्ण जी के जाने के बाद बकाले में सभी पाखंडी लोगों ने खुद को असली गुरु कहलाना शुरू कर दिया और सभी ने अपनी -अपनी गद्दी बकाला में लगा ली ।देखते -देखते वहां पर २२ गद्दियां लग गई।
भाई मख्खन शाह का डूबता जहाज बचाना
भाई मख्खन शाह जी का एक बहुत बड़े व्यापारी थे । वह समुद्र के रास्ते व्यापार किया करते थे। एक दिन जब उनका जहाज यात्रियों तथा सामान के साथ लौट रहा था, रास्ते में एक तूफान आया। तूफान बहुत तेज होने के कारण जहाज आगे नहीं बढ़ पा रहा था और जहाज के डूबने का खतरा बढ़ता जा रहा था। भाई मख्खन शाह जी की नजर एक सिख पर पड़ी जो अपनी आँखें बंद किए कोने में बैठा प्रभु की भक्ति में लीन था। यह देखकर भाई मख्खन शाह जी उनके पास गए और पूछा कि जहाज खतरे में है,बहुत बड़ा तूफान है और बचने का कोई रास्ता नहीं है। आप इतने शांत कैसे बैठे हैं? क्या आपके पास इसका समाधान है?
सिख ने जवाब दिया, “डरने की कोई बात नहीं है। गुरु नानक देव जी के पवित्र चरणों में प्रार्थना करें वह इस मुसीबत की घड़ी में हमारी मदद कर सकतें हैं और वही हमारा बेड़ा पार लगाएंगे ।”यह सुनकर सभी , गुरु नानक देव जी से प्रार्थना करने लगे, तथा वह सभी भक्ति में लीन हो गए और जहाज के डूबने के खतरे को भूल गए। वे सभी नाम सिमरन में लगे हुए थे तभी अचानक उन्हें महसूस हुआ कि किसी ने जहाज को कंधा देकर किनारे पर कर दिया है। जब जहाज़ ने अचानक झटका दिया, तो सभी की आँखें खुल गईं और उन्होंने देखा कि वह सभी तूफ़ान से निकल चुकें हैं ।
भाई मख्खन शाह ने गुरु के सिख से पूछा, “गुरु नानक देव जी का पवित्र घर कहाँ है”? गुरु के सिख ने कहा, “आजकल उनकी नौवीं आत्मा/उत्तराधिकारी उनकी गुरुगद्दी पर विराजमान है और वह बकाला में तपस्या कर रहे हैं।” यह सुनकर भाई मख्खन शाह ने कहा, “मैं भी आपके साथ बाबा जी के दर्शन करने जाऊंगा और उन्हें 500 सोने की मोहरें भेंट करूंगा, जिन्होंने तूफान में हमारी और हमारी संपत्ति की रक्षा की।” जैसे ही जहाज़ का समान उतरा, उसने और उसके साथियों ने बकाले गाँव जाने का फैसला किया।
सच्चा गुरु लधो रे
भाई मख्खन शाह अपने साथियों के साथ बकाले गाँव के लिए रवाना हुए। वह बकाले गये और देखा कि 22गद्दियों / बिस्तरों पर गुरु बिराज थे । असली गुरु कौन है? किसने हमें तूफान से बचाया ? इन सभी सवालों का जवाब नहीं मिल पा रहा था क्योंकि सभी खुद को असली गुरु कह रहे थे। यह सब देखकर भाई मख्खन शाह ने अपने साथियों से सलाह की ,कि वह 5-5 मोहरों के साथ प्रत्येक गुरु को प्रणाम करेंगे जो वास्तविक गुरु होंगे वह खुद ही वादे की रकम माँग लेंगे। उन्होंने ऐसा ही किया और 5-5 मुहरों के साथ आगे बढ़ते रहे लेकिन किसी ने भी कोई मांग नहीं की। इस प्रकार भाई मख्खन शाह ने परीक्षण किया कि ,उनमें कोई भी सच्चा गुरु नहीं है, सभी पाखंडी हैं।
यह सब देखकर, भाई मख्खन शाह ने एक ग्रामीण से पूछा, “क्या कोई अन्य गुरु यहां रह रहा है?” उन्होंने कहा, “यहां तेगा नामक एक भक्त रहता है, वह कोई पाखंड नहीं करता ,न ही वह खुद को गुरु कहता है, वह मिट्टी के घर में रहता है और किसी से कम ही मिलता है।” ग्रामीणों ने भाई मख्खन शाह को गुरु के घर पर छोड़ दिया। भाई मख्खन शाह ने आशा व्यक्त की, कि यह वही गुरु हैं जिसने उनकी मदद की थी। जब वह घर पहुंचा, तो उसने गुरुजी से मिलने का अनुरोध किया, लेकिन माता नानकी ने कहा कि गुरु तेग ने किसी से भी मिलने से इंकार किया है । लेकिन भाई मख्खन शाह ने कहा कि हम बहुत दूर से आए हैं और हमें वापस जाना है। यह सुनकर माँ उन्हें अंदर ले आई। भाई मख्खन शाह अंदर देखकर आश्चर्चकित रह गए, उनके सामने दिव्य,रूहानी मूरत थी। उसने आपके सामने 5 मुहरें रख आपको परखने की कोशिश की और झुक कर प्रणाम किया । तब गुरु जी ने कहा, “बस भाई सिखों, ये 5 मोहरें , तुमने तूफ़ान के समय वादा 500 मोहरें का किया था अब अपना वादा नहीं निभाया । जहाज़ को तूफान से बाहर निकालते समय बहुत ज़ोर लगा था । ” यह कहते हुए, गुरु जी ने अपने कंधे से कपड़ा उठा दिया। । भाई मख्खन शाह गुरुजी के जख्मों को देखकर हैरान रह गया था जो अभी भी ताज़ा थे और जहाज़ की किलों के निशान भी दिखाई पड़ रहे थे। यह देख वह गुरु जी के चरणों में गिर गया और कहा कि आपने डूबने से बचाया , भटकते को राह दिखाई और मृतकों को जीवन दान दिया। भाई मख्खन शाह ‘ गुरु लाधो रे ” गुरु लाधो रे’ अपने मन में कहते हुए बाहर आ गए ।
उन्होंने रात में अपने स्थान पर जाकर एक पोशाक बनाई। गुरु तेग बहादुर जी के आदेश के अनुसार, जो कोई गुरु की तलाश करेगा, उसका चेहरा काला हो जाएगा। उन्होंने सुबह उठकर एक थाली में पोशाक ,वादे की कीमत की मोहरें रखी और लंगर /रसोई घर से राख लेकर अपने चेहरे पर लगा ली। उसने बकाले में अपने साथियों के साथ मिलकर ‘गुरु लाधो रे’, ‘गुरु लाधो रे’ का ढिंढोरा पीट दिया और गुरु महाराज के समक्ष उपस्थित हुआ । उन्होंने गुरु जी को पोशाक पहनाई और गुरु जी ने कहा,’आपने गुरु के शब्दों को अपने मुँह पर कालिख लगाकर पूरा कर दिया है ।” यह सुनकर भाई माखन शाह उनके चरणों में गिर पड़े और बोले, ‘महाराज, यदि आप छिपे रहते, तो सिख भटक जाते और गुरु की महिमा कम हो जाती । अब आप कृप्या इस ज़िम्मेदारी को संभाले और हमारा मार्गदर्शन करें ‘ | जब इस बात का सभी को पता चला , तब 6 अप्रैल, 1664 ई. भाई गुरदित्ता द्वारा गुरु तेग बहादुर जी का अभिषेक किया गया। इस प्रकार सच्चे गुरु,लोगों के सामने प्रकट हुए।
गुरु तेग बहादर जी गुरुगद्दी मिलने के बाद प्रचार -प्रसार में जुट गए। आप अमृतसर साहिब , तरनतारन साहिब , खडूर साहिब ,मालवा, साबों की तलवंडी आदि स्थानों पर गए और लोगों का मार्गदर्शन किया। फिर आप श्री आनंदपुर साहिब पहुंचे।
गुरु तेग बहादुर जी द्वारा आनंदपुर साहिब की स्थापना
गुरु तेग बहादुर जी ने श्री आनंदपुर साहिब के निर्माण के लिए 19 जून 1665 को भीम चंद के पिता दलीप चंद से एक लाख 57 हज़ार रुपये की ज़मीन खरीदी थी । शहर का नाम चक्क नानकी रखा गया और बाद में इसका नाम बदलकर श्री आनंदपुर कर दिया गया। गुरु तेग बहादुर जी ने इसके निर्माण पर बहुत जोर दिया, अच्छे-अच्छे कारीगर बुलाये गए। कारीगरों ने बाजार, सड़कों, घर में स्थाई (पक्का )काम शुरू किया। इस स्थान पर भाई मख्खन शाह लुबाना ने गुरु जी से विदाई मांगी और कहा मुझे आशीर्वाद दें कि ‘मैं जहां भी जाऊं, जहां भी रहूँ मुझे आपके दर्शन होते रहें ।गुरु तेग बहादुर जी ने कहा कि गुरबानी का जाप हमेशा करते रहना मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा।’
गुरु तेग बहादुर जी 3 अक्टूबर 1665 ई. में सेवादारों को श्री आनंदपुर साहिब का निर्माण कार्य सौंपकर ,तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने लैहल गाँव (पटियाला) में माता करमो देई की चेचक की बीमारी को ठीक किया वहां पर अब गुरुद्वारा दुखनिवारन साहिब है। सेखां में, चौधरी का अहंकार तोड़ा और भैनी में, उच्च जाति के लोगों का अहंकार तोड़ा था। अब इस स्थान पर गुरुद्वारा गुरूसर शिशोभित है। यात्रा और लोगों का मार्गदर्शन करते हुए, गुरु जी भोपाल फिर साबो की तलवंडी में पहुँचे और पापियों, अभिमानीयों, क्रोधीयों का मार्गदर्शन किया और उन्हें सीधे रास्ते पर चलने के लिए कहा। उनकी महिमा की बात औरंगजेब के लिए चिंता का विषय बन गई थी। उन्होंने आप जी को संदेश दिया कि यदि आप पीर हैं तो चमत्कार करें। वहाँ से आप दिल्ली की ओर चल पड़े |जब आप दिल्ली पहुँचे , तो आपके साथ लगभग 30,000 सिख संगत थी । आपको सम्मान के साथ औरंगजेब के पास लाया गया। औरंगजेब से सीधी बातचीत हुई। जब औरंगजेब ने आपको चमत्कार करने के लिए कहा, तो आपने कहा, “चमत्कार कहर का नाम है।”औरंगजेब और गुरु तेग बहादर के बीच कई बातें हुई। उनके शब्दों से प्रभावित होकर, औरंगजेब को कहना पड़ा कि, “गुरु तेग बहादुर फकीर हैं। वे अल्लाह की इच्छा में रहते हैं और उनके पास भगवान ही केवल एक सहारा है।” यह कहकर औरंगजेब चुप हो गया।
आप दिल्ली से मथुरा पहुंचे ,फिर आगरे,कानपूर ,प्रयाग (अलाहाबाद )मिर्जापुर और फिर बनारस पहुँचे। बनारस में गुरु नानक देव जी के चरण पड़े थे इसलिए गुरु तेग बहादुर जी वहां आकर काफ़ी खुश थे। बनारस में आपने एक कोड़ी का कोड़ दूर किया था।
आप बनारस से गय्या , फिर पटना मई 1666 ई. में पहुंचे। पटना शहर के बाहर आपने एक बाग़ में विश्राम किया था जहां पर अभी गुरुद्वारा गुरु- का -बाग़ है। फिर पटना के लोग आपको आदर सत्कार से अपने घर ले आये और धीरे -धीरे आपने अपना निवास स्थान पटना में ही बना लिया। आपने ज्यादातर समय पटना में बिताया था फिर आपजी मामा किरपाल, भाई दियाला जी ,भाई संगतिया जी और बाकि सिखों को घरवालों की जिम्मेदारी सौंप कर प्रचार के लिए आगे निकल गए।
गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म
गुरु तेग बहादुर जी उपदेश देते हुए ढाका पहुंचे। अभी वह ढाका में ही थे जब ,26 दिसंबर 1666 ई. को गुरु गोविंद सिंह के जन्म /आगमन की ख़बर पटना से आई। उन्होंने पटना की संगत को धन्यवाद दिया और लड़के का नाम गोबिंद रखा। गरीबों में मिठाई और पैसे बांटे गए।
यात्रा के दौरान, उन्होंने अपनी माँ की इच्छा अनुसार अपनी एक तस्वीर बनाई। यह चित्र/तस्वीर विक्टोरिया संग्रहालय, कलकत्ता में है। इसके बाद आप असाम की यात्रा पर निकले। वह असम से पटना के लिए रवाना हुए। पटना पहुंचकर उन्होंने अपने बेटे के साथ समय बिताया। आप 3 महीने तक यहां रहे और संगतों को उपदेश दिया और अपने परिवार को वहीं छोड़कर पंजाब चले आए। आप करनाल से दिल्ली होते हुए श्री आनंदपुर साहिब पहुंचे।
यहीं पर भाई घनिया जी आप जी से मिलने आए थे। आपने उन्हें पानी का घड़ा उठाने व जल की सेवा करने के लिए कहा और वचन दिया की आप युद्ध के मैदान में भी बिना भेद -भाव किये दुश्मनों को भी जल की सेवा करेंगे। भाई घनिया जी हर साल श्री आनंदपुर साहिब आते थे और जल की सेवा में लगे रहते थे।
जब श्री आनंदपुर साहिब शहर का निर्माण कार्य सम्पूर्ण होने लगा,तब आपने गुरु गोबिंद सिंह जी को सपरिवार श्री आनंदपुर साहिब बुलाया। कुछ समय परिवार के साथ बिताकर आप परिवार को छोड़कर, 1673 ई.में मालवा के दौरे पर गए। जब आपको यह पता चला है कि औरंगजेब पंजाब की सीमा पार करके और खटक व अफरीदी के विद्रोह को दबाने के लिए खुद ही गया है, तब आप नवंबर 1674 में श्री आनंदपुर साहिब लौट आए।
औरंगजेब का अत्याचार
औरंगजेब 1658 ई. में अपने पिता शाहजहाँ को कैद और भाइयों की हत्या करके सिंहासन पर बैठ गया था। उसके इस व्यवहार के कारण कोई भी इस्लामिक देश उसे महत्व नहीं देता था। इसलिए उसने अपनी प्रतिष्ठा को बहाल करने के लिए, मुस्लिम धर्म का प्रचार /प्रसार करना शुरू किया | उसने गैर-मुस्लिमों और सूफी संतों को सताना शुरू कर दिया था। उसने हिंदू मंदिरों और स्कूलों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया और मुस्लिम प्रचार के लिए सूफी संतों को मारना भी। औरंगजेब चमत्कार/करामात देखने का शौकीन था। वह फकीरों से चमत्कार देखता था। जब भी सूफी संतों को कैद किया जाता था ,तब उनसे यही कहा जाता , कि या तो चमत्कार दिखायो नहीं तो मौत को अपनायो। उसने मिट्टी के बर्तन (खिलौने) बनाने और बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया था। उसने राग पर भी प्रतिबंध लगा दिया था। लोग उसके अत्याचारों से बहुत दुखी थे। वह लोगों को इस्लाम में परिवर्तित होने के लिए मजबूर करता था और कुछ लोगों ने उसके अत्याचारों से तंग आकर इस्लाम धर्म भी कबूल कर लिया था ।
औरंगजेब इस्लाम का प्रचार पूरे भारत में करना चाहता था। इसके लिए उन्होंने कश्मीर को चुना था । कश्मीर को चुनने के कई कारण थे क्योंकि वहां कश्मीरी पंडित रहते थे ,जिन्हें बहुत ही विद्वान और प्रसिद्ध माना जाता था। उसने सोचा कि अगर पंडित मुसलमान बन गए, तो दूसरों को बदलना आसान होगा। दूसरा कारण यह था कि, जैसा कि कश्मीर काबुल और पेशावर के करीब था, जरूरत पड़ने पर जिहाद के नाम पर सैनिक भारत आ सकते थे।
औरंगजेब ने अपनी योजनाओं को पूरा करने के लिए अफगान खान को कश्मीर का गवर्नर/ राज्यपाल बना दिया और अफगान खान ने मंदिरों में जाने और धार्मिक मेले लगाने पर पावंदी लगा दी थी। अत्याचारों से परेशान होकर, कश्मीरी पंडितों ने अमरनाथ की यात्रा पर जाने का फैसला किया। अमरनाथ की गुफा में जाकर उन्होंने अपने दुखों के निवारण के लिए फरियाद की और कहा जाता है कि गुफा के अंदर से एक आवाज आई थी, ‘आप गुरु तेग बहादुर जी के पास जाएँ , जो गुरु नानक देव जी की गद्दी पर विराजमान हैं, उनसे अपनी दुखों का निवारण करने की विनती करे , ताकि हिंदू धर्म की रक्षा हो सके । धरती पर केवल गुरु तेग बहादुर ही है, जो कि आपकी रक्षा कर पाएंगे।’
कश्मीरी पंडितों की फ़रियाद
कश्मीरी पंडित श्री आनंदपुर साहिब पहुंचें। वहां पहुंचकर पंडित किरपा राम ने गुरु जी के समक्ष विनती की ,कि हम औरंगजेब के अत्याचारों से बहुत दुखी हैं। वह हिंदू धर्म को मिटाना चाहता है। आप भगवान के अवतार हैं,आप हमारी बांह पकड़कर हिंदू धर्म की रक्षा कर सकतें हैं। अब आपके सिवा दूसरा और कोई भी हमारी रक्षा नहीं कर सकता। पंडित अपनी दुःख भरी कहानी सुनाते रहे और गुरु जी से अनुरोध/विनती करते रहे ,कि हम आपकी शरण में आए हैं, हमें उत्पीड़न/अत्याचारों से बचाएं।यह सब सुनकर, गुरु जी ने अपना मन बना लिया कि अब मुगलों को अपना बलिदान देकर शर्मसार करने का समय है।
उसी समय, बालक गोबिंद बाहर से खेलते -खेलते दरबार में आ गए । उन्होंने पंडितों द्वारा गुरुजी से बातचीत करने का कारण पूछा, तब गुरु तेग बहादुर जी ने कहा, “बेटा, यह कश्मीरी पंडित है। यह काफी दुखी हैं, इन्हें औरंगज़ेब मुस्लिम बनाना चाहता है और यह मदद लेने के लिए हमारे पास आए हैं।” यह सुनकर बाल गोबिंद ने कहा, “किस तरह की मदद से उनके दुःखों का समाधान हो सकता है?” बालक गोबिंद की बात का जवाव देते हुए गुरु तेग बहादुर जी ने कहा “किसी महान व्यक्ति की कुर्बानी ही हिन्दू धर्म को बचा सकती है”। तब बाल गोबिंद ने सहज भाव से कहा, “पिता जी,आपसे बड़कर ओर दूसरा महान व्यक्ति कोई नहीं हो सकता है। “
बाल गोबिंद की बातें सुनकरगुरु तेग बहादुर जी का मन द्रवित/प्रसन्न हो गया।गुरुजी ने अपने बेटे को गले लगाया और कहा, “बेटा,मुझे आपसे यही उम्मीद थी । तुम अब गुरुगद्दी के योग्य हो गए हो । मेरे बलिदान के बाद, तुम्हें इन सबका ध्यान रखना होगा ।” इतना कहकर गुरूजी पंडितों को संबोधित करने लगे, गुरु जी ने कहा, “मेरा यह संदेश औरंगजेब को भिजवा दो कि गुरु तेग बहादुर हमारे आगू (गुरु) हैं। आप सबको नहीं सिर्फ उन्हें ही इस्लाम कबूल करवाके दिखायो, अगर उन्होंने इस्लाम कबूल कर लिया तब हम सभी इस्लाम कबूल कर लेंगे।” यह सब सुनकर कश्मीरी पंडितों के मन को राहत/संतुष्टि मिली और वह कश्मीर की तरफ चल पड़े।

दिल्ली के लिए गुरु तेग बहादुर जी की तैयारी
गुरुजी से संतुष्ट होकर पंडित कश्मीर लौट आए और राज्यपाल से कहा कि यदि आप गुरु तेग बहादुर को मुस्लिम बना लेते हैं, तो हम भी मुस्लिम बन जायेंगें । यह बात जब राज्यपाल ने औरंगज़ेब को बताई ,तब औरंगज़ेब ने सोचा कि अगर एक फकीर को इस्लाम में परिवर्तित करने से, सभी अपने आप मुसलमान बन जाते हैं, तो हमें बाकी लोगों को सताने की क्या जरूरत है? यह सोचकर उसने गुरुजी को गिरफ्तार करने का आदेश दिया।खबर मिलते ही गुरु तेग बहादुर जी ने दिल्ली जाने की तैयारी शुरू कर दी । 8 जुलाई 1675 को, उन्होंने गुरू गोबिंद सिंह को गुरुगद्दी सौंप दी और 11 जुलाई को गुरुजी पाँच सिंह (भाई दयाला जी, भाई सती दास जी, भाई मती दास जी, भाई गुरदित्ता जी और भाई उदय जी) के साथ दिल्ली के लिए रवाना हुए। बाकी संगत भी गुरुजी के साथ जाना चाहती थी,लेकिन गुरुजी ने मना कर दिया था ।
आगरा गिरफ्तारी और गुरु तेग बहादुर जी को यातना
जब गुरु तेग बहादुर जी आगरा पहुंचे, तो उन्हें मुगल सेना ने गिरफ्तार कर लिया। उनके साथ भाई दयाला जी, भाई सती दास जी और भाई मती दास जी भी गिरफ़्तार हुए थे। अन्य दो सिखों (भाई गुरदित्ता जी और भाई उदय जी) को गुरुजी ने गिरफ्तार होने से मना किया था। उन्हें नरसंहार के बाद के अवसर को सँभालने और श्री आनंदपुर साहिब में ख़बर पहुँचाने की जिम्मेदारी दी थी । दिल्ली में, गुरु तेग बहादुर जी चांदनी चौंक की कोतवाली में एक लोहे के पिंजरे में कैद किया गया था। आपको पिंजरे में लगातार खड़े रहने और भी कई अन्य तरह की भी यातनाएं दी जाती थीं ,लेकिन उनके चेहरे पर एक अलग सा ही दिव्य प्रकाश चमकता रहता था और आप स्थिर बने रहते थे। तीनों सिखों की शहादत आपके सामने ही की गयीं थीं तांकि आप अपना निर्णय बदल ले ,परन्तु आप अडोल रहे। आपने हिम्मत व धैर्य रखा हर समय उस परमात्मा का धन्यवाद किया।
गुरु तेग बहादुर जी के सिखों को भी कई प्रकार की यातनाएँ दी गई , लेकिन सभी शांत और स्थिर बने रहे अन्तः भाई मति दास जी को आरी से चीरकर शहीद कर दिया गया।
भाई सती दास जी को कपास/रूई में लपेटकर, उस पर तेल डालकर तथा आग लगाकर शहीद किया गया ।
भाई दयाला जी को उबलती देग में उबालकर शहीद कर दिया गया।
यह सब शहीदियां गुरुजी के सामने की गईं ताकिं वह कमज़ोर पड़ जाएँ, परन्तु गुरूजी अपने प्यारों की शहादत को देखकर भी अडोल/स्थिर रहे। गुरु तेग बहादुर जीअपने प्यारे सिखों को अकाल पुरख/परमात्मा द्वारा दी गयी परीक्षा में उत्तीर्ण होते देख बहुत प्रसन्न हुए और उनका मन उनके निर्णय के प्रति ओर भी कठोर हो गया था।
गुरु तेग बहादुर जी की शहादत
अंत में, 11 नवंबर, 1675 को गुरु तेग बहादर जी को पिंजरे से बाहर लाया गया। कुएँ पर स्नान करने के बाद, उन्होंने जपुजी साहिब का पाठ किया। दोपहर में, गुरु तेग बहादुर जी को कोतवाली से बाहर लाया गया। उन्हें चौंक में लाया गया और वहां पर हजारों लोग जमां हो गए थे । काजी ने फिर वही शर्त दोहराई, लेकिन उन्होंने भी वही जवाब दिया।”अंत में जल्लाद ने अपनी तलवार उठाई और गुरु साहिब का शीश देह से अलग कर दिया ” और इस प्रकार गुरु तेग बहादुर जी ने अपनी कुर्बानी देकर हिन्दू धर्म की रक्षा की थी।
इतिहास गवाही देता है कि जैसे ही शहादत/ हत्याकांड हुआ, एक बहुत बड़ा तूफान आया, उस तूफ़ान में कोई भी कुछ नहीं देख सकता था । भयभीत होकर लोग और सिपाही कोतवाली के अंदर छिप गए। ऐसी लाल हवा चली कि आदमी -आदमी को नहीं देख पाया।
भाई जैता जी द्वारा गुरु तेग बहादुर जी का शीश लाना
भाई जैता जी गुरु तेग बहादुर जी के घर के मुख्य सेवक थे। गुरु तेग बहादुर जी की शहादत से पहले ही, उन्होंने गुरुजी के शहीद होते ही शीश को उठाने की योजना बनाई थी। दूसरी ओर, जब गुरु जी शहीद हुए, तो भाई जैता जी ने बहादुरी से गुरु तेग बहादुर जी साहिब का सिर उठाया और वह तूफान में ही आनंदपुर साहिब की ओर चल दिए। आनंदपुर साहिब में पहुंचकर गुरु गोविंद सिंह ने गुरुजी के शीश के दर्शन किए। अपने पिता के सिर को देखकर, गुरु गोबिंद सिंह ने भाई जैता को अपनी बाहों में ले लिया और वचन कहे ।
“रंगरेटा गुरु का बेटा “
माता गुजरी जी ने अपने पति का शीश देखकर उन्हें प्रणाम किया। फिर शीश को गुलाब जल से धोया गया और अंतिम संस्कार किया गया।
लखी शाह वंजारा द्वारा गुरु तेग बहादुर जी की देह का अंतिम संस्कार किया गया ।लखी शाह वंजारा एक शाही ठेकेदार थे। उन्हें हर जगह आने और जाने की अनुमति थी। उस दिन वह सामान के साथ लाल किले पर पहुंचा,उसने गुरुजी के शरीर को उठाकर अपनी बाहर खड़ी बैलगाड़ी में रख दिया। उनके पुत्र तथा भाई उदय जी व भाई गुरदित्ता जी भी वाहनों के साथ रहे। वाहनों के गुजरने से अंधेरे , तूफान और धूल के कारण सैनिकों के लिए यह जानना असंभव हो गया था की गुरु तेग बहादुर जी की देह और शीश को कब और कैसे कोई उठाकर ले गया। वहां से बचकर लखी शाह वंजारा रकाबगंज अपने शिविर/निवास स्थान में पहुँच गए । गुरुजी के इस सिख ने गुरुजी के पवित्र शरीर को अपने घर में ही चिखा बनाकर घर में समान समेत ही आग लगा दी और फिर सिर झुकाकर भगवान का धन्यवाद किया। जब लोगों ने आग लगने का कारण पूछा, तो उन्होंने कहा कि आग प्राकृतिक कारणों से लगी है और किसी को कोई संदेह नहीं हुआ था।
गुरुद्वारा शीश गंज का निर्माण
जिस जगह लखी शाह वंजारा ने घर में ही गुरु तेग बहादुर जी का अंतिम संस्कार किया उस स्थान पर अब गुरुद्वारा रकाबगंज का निर्माण हो चूका है और जहाँ पर गुरु तेग बहादुर शहीद हुए थे, गुरुद्वारा शीश गंज शिशोभित है । यह गुरूद्वारे गुरु तेग बहादुर जी की शहादत और हिन्दू धर्म की रक्षक होने के प्रतीक हैं। दूर -दूर से श्रद्धालु इनके दर्शनों के लिए आते हैं। गुरु तेग बहादर जी को “हिन्द की चादर” भी कहा जाता है।

चाँदनी चौंक दिल्ली
गुरु तेग बहादुर जी प्रकाश उत्सव
गुरु तेग बहादुर जी का प्रकाश उत्सव अप्रैल के महीने में आता है। इस उत्सव को सिख संगत बढ़ी धूम धाम से मानती है। शीश गंज गुरुद्वारे में इस गुरपूरब के दौरान बहुत ज्यादा सांगत गुरु जी का आश्रीवाद लेने आती है।
गुरु तेग बहादुर जी का शहीदी दिवस
गुरु तेग बहादुर जी का शहीदी दिवस नवंबर के महीने में आता है। इस दिवस को सिख सांगत बड़ी शारदा और भाव से मानती है। शीश गंज गुरुद्वारे से लेके संसार के सारे गुरुद्वारों में गुरु जी के उपदेश याद किये जाते है।
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